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1978 की पश्चिम बंगाल बाढ़ से जुडें अनुभव (भाग 1)

  • By
  • Dr Dinesh kumar Mishra
  • December-18-2018

1978 की बाढ़ के बाद बर्धमान में मेरा काम मुख्यतः 23 स्कूलों का डिज़ाइन और एस्टिमेट तैयार करना और ठेकेदारों के काम का सुपरविज़न करना था. वहाँ सत्ताधारी पार्टी के कुछ सक्रिय सदस्य, जिनके गाँवों में काम के सिलसिले में आना-जाना रहता था, पुआल आधारित सहकारी समिति के अधीन पेपर मिल लगाने कि योजना बना रहे थे और उन्हें मदद के लिए एक इंजीनियर कि जरूरत थी और उन्हें लगा कि मैं उनकी मदद जरूर करूंगा. मुझसे बात करने के पहले उन्होनें जिस संस्था के लिए मैं काम करने गया था, उसके बॉस से उन्होनें बात कर रखी थी कि मुझसे कहें कि हमारी कुछ मदद कर दें. संस्था के बॉस ने मुझसे कहा कि ये लोग अगर आप से कुछ मदद मांगें तो ज़रा कर दीजियेगा. प्राथमिक कामों के बाद जब भी मैं बर्धमान जाता था तब मेरे पास समय रहता था. मैंने बात मान ली और या सारा काम मुझे बिना किसी फीस के करना था.

मामला एक पेपर मिल का था जो मैंने कभी पेपर मिल का स्ट्रक्चर डिज़ाइन नहीं किया था. मैंने पेपर मिल के अध्यक्ष से पूछा कि उनका पेपर मिल का डिज़ाइनर कौन है. मुझे कैसे-कैसे कच्चा माल पेपर में बदलता है, इसकी पूरी प्रक्रिया जाननी होगी और मशीनें कहाँ बैठेंगी और उनका आकार और वज़न क्या होगा जानना भी जरूरी होगा ताकि मैं फैक्ट्री की लम्बाई, चौड़ाई और ऊंचाई तय कर सकूं. इतना मालूम हो जाने पर बाकी काम मैं कर लूँगा. उनका कहना था कि उनकी फैक्ट्री बनाने में कलकत्ते के एक पेपर मिल के अवकाश प्राप्त मैनेजिंग डायरेक्टर उनके परामर्शी हैं और मेरे सवालों का जवाब तो वही दे सकते हैं. तय यह हुआ कि एक दिन हम लोग कलकत्ता जाकर उनसे मिल लेंगें और उसके बाद फैक्ट्री का जो भी स्ट्रक्चर खडा करना होगा, उसमें मैं सहकारी समिति को गाइड करता रहूँगा.

और एक दिन हम चार लोग अवकाश प्राप्त एम्.डी. साहब से मिलने गए, जिसमें एक तो हाई स्कूल के अवकाश प्राप्त हेड मास्टर थे और देश विदेश भी घूमे हुए थे. हम चारों लोगों में वही सबसे वरिष्ठ थे. दूसरे सज्जन पेपर मिल सहकारी समिति के अध्यक्ष थे. तीसरी एक महिला थीं जो दाता संस्था, जिसके काम से मैं बर्धमान गया था, उसके बॉस की पत्नी थीं. चौथा मैं, जो इस ग्रुप में संभवतः उम्र में सबसे छोटा था. श्याम बाज़ार में उनका दफ्तर था जिसमें कई लोग काम करते थे. एम्.डी. साहब के चैंबर में हम लोगों ने प्रवेश किया और उनके सामने इसी क्रम में बैठे. एम.डी. साहब साधारण कद के मोटे आदमी थे और चहरे से अवकाश प्राप्त लगते भी थे. उनकी शक्ल चर्चिल से मिलती-जुलती थी और काफी गंभीर इंसान लगते थे. दुआ-सलाम के बाद उन्होनें सबका परिचय पूछा और पहला नम्बर मास्टर मोशाय का ही था. मास्टर बाबू ने अपना परिचय दिया और पृष्ठभूमि बताई.

एम. डी. साहब ने उनसे पूछा कि वो पढ़ाते क्या थे. मास्टर मोशाय का जवाब था कि वो भूगोल और अंग्रेजी पढाया करते थे. इतना सुनते ही एम्. डी. साहब ने कहा,

“सर्वनाश! जो आपने अंग्रेजी पढ़ाई. अगर राम मोहन राय और पंडित विद्यासागर आज के युग में होते तो मैं उन लोगों को गोली मार देता. उन्हीं की कोशिश से भारत में अंग्रेजी को मान्यता मिली और आप जैसे अध्यापक पैदा हुए. आप ने क्या पढ़ाया होगा उसका एक नमूना मैं अभी आप को दिखाता हूँ."

एम. डी. साहब किस तरह के व्यवहार के लिए हम में से कोई भी तैयार नहीं था. उन्होंने घंटी बजा कर अपनी सेक्रेटरी को बुलाया और उससे कहा कि पत्र व्यवहार कि कोई भी फ़ाइल लेकर आओ. वह थोड़ी देर में फ़ाइल लेकर आई.

एम्. डी. साहब ने उससे कहा कि अपना लिखा हुआ कोई भी पत्र पढ़ कर सबको सुनाओ. सेक्रेटरी का डर के मारे बुरा हाल था और उसके हाथ और ज़बान दोनों कांप रहे थे. एम्.डी. साहब ने उसे सांत्वना देते हुए कहा कि,

"बेटी! तुमको डरने कि कोई बात नहीं है. मैं तुमसे सिर्फ तुम्हारे द्वारा लिखी हुई कोई भी एक चिट्ठी पढ़ कर सुनाने की बात कर रहा हूँ. तुम एकदम चिंता मत करो."

सेक्रेटरी ने अपना लिखा एक पढ़ना शुरू किया. थोड़ी देर बाद एक ऐसा शब्द आया, जिस पर एम.डी. साहब ने उसे रुकने के लिए कहा. वह मास्टर मोशाय की ओर मुखातिब हुए और बोले,

“मास्टर मोशाय, मैंने यह शब्द अभी फ़ाइल में देखा नहीं है पर मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि इसकी स्पेलिंग गलत है.”

फिर उन्होनें सेक्रेटरी को वह शब्द मास्टर मोशाय को दिखाने को कहा और उस शब्द की स्पेलिंग सचमुच गलत थी. सेक्रेटरी बेचारी तो रुआंसी हो गयी मगर एम.डी. साहब ने उसे दोबारा आश्वस्त किया कि उसकी कोई गलती नहीं है और उसे फ़ाइल लेकर अपने कमरे में जाने को कहा. इतना हो जाने के बाद वो फिर मास्टर मोशाय की तरफ मुखातिब हुए और बोले,

“आप जैसे लोगों ने यही पढ़ाया है अंग्रेजी में. मैं फ़ाइल को बिना देखे और पत्र को बिना देखे ही बता सकता हूँ कि स्पेलिंग गलत है. कितनी पीढ़ियां बर्बाद हो गयीं इसी तरह.”

उनके इस सलूक से सभी लोग हतप्रभ थे, पर कुछ बोल सकने की हिम्मत किसी में भी नहीं थी.

एम्.डी. साहब अब मुस्कुराए और बोले,

“मेरी बातों का आप लोग बुरा नहीं मानियेगा, मेरी आदतें ही बिगड़ी हुई हैं. किसी बात को उस गंभीरता से नहीं लेता, जिसकी वह हकदार है.”

एम.डी. और मास्टर मोशाय एक दूसरे को देख कर मुस्कुराए और बात आई गयी हो गई. मंजे हुए लोग इसी तरह से सामान्य हो जाते होंगें.

अब नंबर था, सहकारी समिति के अध्यक्ष का परिचय देने का जिनके चेहरे पर तनाव साफ़ दिखाई पड़ रहा था कि पता नहीं यह आदमी उनसे क्या सवाल कर बैठे...  क्रमशः–2

क्या यह आपके लिए प्रासंगिक है? मेसेज छोड़ें.

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