उपर्युक्त सलाहकार समिति ने बराहक्षेत्र योजना की एक वैकल्पिक व्यवस्था दी थी जिसके अनुसार योजना निम्न रूप से प्रस्तुत की गई..
1- चतरा से 14.4 कि.मी नीचे बेलका पहाडि़यों में 25.91 मीटर ऊंचा मिट्टी का बांध बनाना जिसका स्पिलवे कंक्रीट का बना होगा। बांधों की कुल लम्बाई 19.2 कि.मी. होगी तथा स्पिलवे 762 मीटर लम्बा होगा। इसकी संचय क्षमता 2.20 लाख हेक्टेयर मीटर आंकी गई थी जिसमें 1.04 लाख हेक्टेयर मीटर सिल्ट के लिए तथा बाकी जलाशय के लिए थी। इस जलाशय की वज़ह से 1927 के 21,150 घनमेक सर्वाधिक प्रवाह को 8500 घनमेक तथा 1948 के 14,340 घनमेक सर्वाधिक प्रवाह को 6000 घनमेक किया जा सकता था। ऐसा अनुमान था कि 17 वर्षों में बांध की सिल्ट/बालू धारण करने के लिए निर्दिष्ट क्षमता का पूरा उपयोग हो जायेगा तथा लगभग 50 वर्ष में संपूर्ण संचय क्षमता का ”हास हो जायेगा।
2- नेपाल तथा बिहार के उपयोग के लिए 68,000 किलोवाट विद्युत उत्पादन।
3- पूर्वी कोसी नहर प्रणाली का निर्माण जिससे बिहार के 6.15 लाख हेक्टेयर क्षेत्र की सिंचाई होगी।
4- नहर में तीन इकाइयों द्वारा 30,000 किलोवाट बिजली का आवश्यकतानुसार उत्पादन।
5- नेपाल पूर्वी नहर प्रणाली का निर्माण।
6- पश्चिमी कोसी नहर द्वारा नेपाल तथा बिहार में 4.70 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई की व्यवस्था।
इस योजना पर 55.5 करोड़ रुपए लगने का अनुमान किया गया था। कोसी नदी के पश्चिमी तट पर कुसहा से भगवानपुर तक 56 कि-मी- लम्बा प्रस्तावित तटबंध भी इस योजना का अंग था जिससे नदी के पश्चिम की ओर के विस्थापन को रोका जा सके। मगर योजना स्तर पर ही इस प्रस्तावित तटबंध का ज़बर्दस्त विरोध हुआ और यह प्रश्न बिहार विधान सभा में भी उठाया गया था जिसके तर्क साफ़ थे कि अगर बेलका बांध बनाने के बाद भी सारी बालू/सिल्ट इस मात्र में मौजूद रहे कि नदी की धारा परिवर्तन का डर बना ही रहे तो फिर बेलका बांध और पश्चिमी तटबंध की जरूरत ही क्या है?
ललितेश्वर मल्लिक (1953) लिखते हैं, “यदि यह मान्यता ठीक है कि बेलका बांध से अथवा बराहक्षेत्र बांध से कोसी की बाढ़ पर पूरा नियंत्रण पड़ जायेगा तब तो बांध (तटबंध) की आवश्यकता ही नहीं रह जाती है। यदि बाढ़ पर नियंत्रण नहीं पड़ता है तो सरकार को, और ख़ास कर प्रजातांत्रिक सरकार को, कोई भी अधिकार नहीं है कि किसी नदी के प्राकृतिक बहाव पर रुकावट डाल कर किसी भी क्षेत्र विशेष के लोगों को तबाह और बरबाद करे”। इत्तिफ़ाक ने जिस मजूमदार समिति ने बेलका जलाशय के साथ इन तटबंधों की सिफ़ारिश की थी उसके अध्यक्ष एस-सी- मजूमदार (1940) ने, जब वह बंगाल के मुख्य अभियंता थे, मानते थे कि ‘वास्तव में, बंगाल में जो हमारा अनुभव रहा है उसके अनुसार बाढ़ नियंत्रण के लिए नदियों पर बनाये जाने वाले तटबंधों का मतलब इतना ही है कि हम आज के थोड़े से अस्थाई फ़ायदे के लिए आने वाली पीढि़यों को बंधक रख दें। बदलते वक़्त के साथ मजूमदार साहब के विचारों में भी परिवर्तन आ गया था और सिर्फ बारह साल के फासले पर वह तटबंधों के हिमायती बन गये थे।
अब
बेलका जलाशय प्रस्ताव पर भी आफ़त
उधर सरकार इस सिकुड़ी-पिचकी योजना पर अमल कर सकने की स्थितिमें नहीं थी और जनता इसे सरकार पर शक़ की नीयत से देख रही थी। जय नारायण झा ‘विनीत’ ने बिहार विधान सभा में प्रश्न उठाया कि कोसी और उसकी विध्वंसलीला को रोकने में सरकार को और कितना समय लगेगा? तत्कालीन सिंचाई मंत्री, बिहार राज्य, का जवाब था कि, दिल्ली में सिंचाई और शक्ति मंत्रालय में 22 जुलाई 1953 को एक बैठक हुई थी जिसमें सामान्यतः यह विचार प्रकट किया गया कि बांध या नहर के लिए बेलका ही सबसे उपयुत्तफ़ स्थान होगा और बाढ़ की भयंकरता की रोकथाम करने के लिए इस सम्बन्ध में सी-डब्ल्यू- पी-सी- को पूरे पैमाने पर जाँच-पड़ताल करने को कहा गया।
हम आशा करते हैं कि सन् 1953 में इसका काम शुरू हो जायेगा। उधर लहटन चौधरी को शक़ था कि बेलका योजना स्थगित हो गई है मगर सरकार को ऐसी कोई सूचना नहीं थी। लहटन चौधरी ने बिहार विधान सभा में अपनी निराशा व्यक्त करते हुये कहा था कि ‘यह सब कैसी भूल-भुलैयाँ है? एक के बाद दूसरी स्कीम बनाई जाती है और वह मिटा दी जाती है। एक एक्सपर्ट के बाद दूसरा एक्सपर्ट, दूसरे के बाद तीसरा और तीसरे के बाद चौथा एक्सपर्ट आता रहता है, किन्तु न जाने कब यह स्कीम लागू होगी और सरकार का जो वादा है यह पूरा भी होगा या नहीं?
बेलका डैम के बारे में यह अपील की जा रही है कि 17 वर्षो में बालू जमा रखने वाला हिस्सा भर जायेगा और इतनी अवधि के लिए करोड़ों रुपये लगाना ठीक नहीं है। पर यह कोई नई बात नहीं हैं फिर आज एकाएक 17 वर्षों में भर जाने के प्रश्न को नया बता कर योजना क्यों छोड़ी जा रही हैं। उधर विधायक रमेश झा ने शिकायत की कि कुछ दिन पहले सिंचाई मंत्री ने बताया था कि भविष्य में बेलका डैम बनेगा और कुछ दिनों बाद उन्हीं की अध्यक्षता में पटना में एक मीटिंग हुई जिसमें केन्द्र सरकार के एक एक्सपर्ट ने बताया कि यह बांध बन पायेगा, यह कोई जरूरी नहीं है।
एक ओर केन्द्र सरकार पार्लियामेन्ट में बयान देती है कि बांध नहीं बनेगा तो दूसरी ओर राज्य सरकार विधान सभा में कहती है कि बेलका बांध बनेगा। अब किसको सही माना जाए योजनाएँ बनती रहीं, आवाजें उठती रहीं, आश्वासन दिये जाते रहे और कोसी अपनी गति से बहती रही यहाँ तक कि क्षेत्र से एक ग़ैर-सरकारी प्रतिनिधि मंडल 11 अगस्त 1953 को पंडित नेहरू से मिलने और यह बताने के लिए गया कि सरकार की टाल-मटोल वाली नीति से पार्टी की छवि को कितना नुकसान पहुँचा रही है। इस प्रतिनिधि मंडल में हरिनाथ मिश्र, सत्येन्द्र नारायण अग्रवाल तथा ललित नारायण मिश्र आदि बहुत से लोग थे।
यह लोग पं.नेहरू के साथ-साथ वी.टी.कृष्णमाचारी, उप-मंत्री, और कँवर सेन, उपाघ्यक्ष, केन्द्रीय जल तथा विद्युत आयोग से मिले। पर बेलका योजना पर विशेषज्ञों की एक बैठक में पुनर्विचार होना था। इस तरह के दबावों के चलते केन्द्र सरकार की ओर से जयसुख लाल हाथी को लोकसभा में आश्वासन देना पड़ा (9 सितम्बर 1953) कि, खोज-बीन अभी भी जारी है और यह उम्मीद की जाती है कि आने वाले 6 महीनों के भीतर इसे पूरा कर लिया जायेगा।
तभी यह बताना मुमकिन हो पायेगा कि सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण के लिए कौन सी योजना लागू की जायेगी। जहाँ तक नदी के पश्चिमी किनारे पर तटबन्धों का सवाल है उसके बारे में कोई मतभेद नहीं है। सवाल इस बात का है कि अगर बांध की ऊँचाई काफ़ी ज़्यादा होती है तो तटबन्धों के आकार को बदलना पड़ सकता है। जब तक बांध के बारे में फैसला नहीं होता तब तक तटबन्धों पर कोई फ़ैसला करना मुमकिन नहीं होगा। फिर भी सरकार लोगों की भावनाओं से पूरी तरह वाकि़फ़ है और इस परियोजना को शुरू करने के लिए हर मुमकिन कदम उठा रही है।
31 अक्टूबर और 1 नवम्बर 1953 को पं.नेहरू ने एक बार फिर उत्तर बिहार का दौरा किया और इससे कार्यकलाप में कुछ तेज़ी ज़रूर आई। आखि़रकार भारत सरकार द्वारा एक दूसरी समिति गठित की गई जिससे कोसी परियोजना के तत्कालीन स्वरूप पर राय मांगी गई। वेंकटा कृष्ण अयर-चीफ़ इंजीनियर, आन्ध्र प्रदेश,कुँवर सेन, अध्यक्ष, केन्द्रीय जल एवं विद्युत आयोग, एम.पी. मथरानी, चीफ़ इंजीनियर, बिहार तथा एन.के. बोस-निदेशक, सिंचाई शोध संस्थान, कलकत्ता, इस समिति के सदस्य थे। इस चारों सदस्यों ने क्षेत्र का 10 दिसम्बर 1953 को हवाई सर्वेक्षण किया और 13 दिसम्बर 1953 को अपना अन्तिम प्रतिवेदन सरकार को दिया जिसके आधार पर गुलजारी लाल नन्दा ने 14 दिसम्बर 1953 को लोकसभा में कोसी योजना का प्रारूप बताया जिसके आधार पर वर्तमान निर्माण कार्य हुआ है। इसे 1953 योजना के नाम से शोहरत मिली। इस योजना को केन्द्रीय जल तथा विद्युत आयोग की 1953 योजना भी कहते हैं।
महानन्दा परियोजना तथा बाढ़ नियंत्रण की वास्तविक स्थिति महानन्दा बाढ़ नियंत्रण परियोजना को उत्तर बिहार की घटिया बाढ़ नियंत्रण योजना तो नहीं क...
Read Moreनदियों का छलक कर या किनारे तोड़ कर बहना कोई नई घटना नहीं है। यह आदिकाल से होता आया है परन्तु नदियों तथा प्रकृति से सामञ्जस्य रखने वाले भारती...
Read Moreबाढ़ों के साथ जीवन निर्वाहअब तक हमने बाढ़ों से मुकाबला करने की विधा पर एक नजर डाली है जिसमें हरेक तरीके के इस्तेमाल में अगर कुछ अच्छाइयाँ है...
Read Moreपृष्ठ भूमिआम तौर पर यह माना जाता है कि जब किसी इलाके में बारिश इतनी ज्यादा हो जाय कि वहाँ के तालाब, पोखरे, नदी-नाले भर कर छलकने लगे और छलकता...
Read Moreबिहार–गौरवशाली अतीतभारत के गौरवशाली अतीत की चर्चा जब भी होती है, तो सबसे पहले बिहार का नाम लिया जाता है। देवताओं और दानवों ने मिलकर जब समुद्...
Read More